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Bøker utgitt av Leftword Books

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  • - Selected Articles
    av E.M.S. Namboodiripad
    219,-

  • av Ola Johansson
    299,-

  • av John Reed
    286,-

  • av Githa Hariharan
    225,-

  • av &#2358, &#2366, &#2352, m.fl.
    142,99

    इस किताब में शामिल चार लेखों को आप मॉडर्न ज़माने की दंतकथाओं की तरह पढ़ सकते हैं। ईव एंसलर अमेरिकन नाटककार और मशहूर दि वजाइना मोनोलॉग्स की लेखक ईव ने अमेरिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के नारंगी बालों की गुत्थी बेहतरीन तरीके से सुलझाई है। दानिश हुसैन हिंदुस्तानी दास्तानगो, ऐक्टर और कवि दानिश ने सिर्फ़ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के किस्से ही नहीं सुनाए बल्कि उसी बहाने संघ परिवार के दिनोंदिन बढ़ते अतिवादों का भी लेखा-जोखा पेश किया है। बुरहान सॉनमेज़ तुर्की उपन्यासकार बुरहान ने तुर्की के राष्ट्रपति तैय्यप एर्रदोगान के भटकाव भरे पूरे राजनीतिक करियर का खाका दिया है। निनॉच्का रॉस्का फिलीपींस की स्त्रीवादी उपन्यासकार निनॉच्का ने दुतेर्ते की पुरुषवादी सत्ता विमर्श की पोल खोली है। इन लेखकों को 'तटस्थ' समझने की भूल बिल्कुल न करें। ये ऐसे विचारक, ऐसे जादुई लेखक और कारामाती कलाकार हैं जिन्हें शैतानी ताकतों, दुनिया के भविष्य और आने वाले कल को देखने की ख़ास नज़र मिली है। दुनिया का वर्तमान दर्दनाक है लेकिन भविष्य बेहद ज़रुरी। चार दमदार लेखक, चार ग्लोबल दबंग।

  • av Prakash Karat
    203,-

  • av Vijay Prashad
    278,-

  • av Patrick Cockburn
    198,-

  • av Sanjib Kumar
    158,-

    हाल ही में भारतीय संसद ने देश के संघीय ढाँचे और लोकतांत्रिक चरित्र की जड़ों को हमेशा के लिए कमज़ोर कर देने वाला एक फ़ैसला किया।एक ग़ैर-संवैधानिक प्रक्रिया से निकले हुए इस फ़ैसले के तहत न सिर्फ़ जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा छिन गया बल्कि वह उस न्यूनतम स्वायत्तता से भी महरूम हो गया जो अन्य राज्यों को मिली हुई है।इस फ़ैसले को थोपने के लिए पूरे राज्य की संचार-व्यवस्था ठप्प कर दी गई, कश्मीर को एक विराट जेलखाने में तब्दील कर दिया गया। आज कश्मीर में इतनी बड़ी संख्या में सेना और अर्द्ध-सैनिक बलों की तैनाती है जितनी दुनिया के किसी कोने में नहीं है।यह पुस्तिका इसी शर्मनाक और दहशतनाक ऐतिहासिक लम्हे के मुख़्तलिफ़पहलुओं की पड़ताल है।// लेखक नंदिता हक्सर यूसुफ़ तारीगामी एजाज़ अशरफ़ प्रदीप मैगज़ीन एलोरा पुरी वजाहत हबीबुल्लाह रश्मि सहगल प्रभात पटनायक सुबोध वर्मा शिंजनी जैन सुभाष गाताडे हुमरा क़ुरैशी डेविड देवदास

  • av Sanjib Kumar
    144,-

    राज्य और उसके क़ानून की निगाह में सभी नागरिकों की समानता का आदर्श स्थापित करने वाला भारतीय संविधान अपने अमल के सत्तर साल पूरे करने जा रहा है, लेकिन जन्म के आधार पर सामाजिक दर्जा तय करने वाली जाति-व्यवस्था की जकड़बंदी न सिर्फ़ बदस्तूर है बल्कि पिछले कुछ वर्षों में अधिक आक्रामक हुई है। ऐसा क्यों है? इसे ताक़त कहाँ से मिलती है? इसका निदान क्या है? इन सवालों पर लागातर सोचने की ज़रुरत है, ख़ास तौर से तब जबकि केंद्र समेत भारत के अनेक राज्यों की सत्ता उनके हाथों में है जो विचारधारात्मक स्तर पर भारतीय संविधान के मुक़ाबले मनुस्मृति के ज़्यादा क़रीब हैं।// लेखक उर्मिलेश सुभाष गाताडे बादल सरोज सुबोध वर्मा आनंद तेलतुम्बड़े सोनाली प्रबीर पुरकायस्थ भाषा सिंह बेज़वाड़ा विल्सन चिन्नैया जंगम अनिल चमड़िया जिग्नेश मेवाणी संभाजी भगत

  • av Subhash Gatade
    171,-

    मई 2019 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी ने शानदार चुनावी जीत हासिल की। यह जीत सामान्य समझ को धता बताती है - जीवन और आजीविका जैसी आधारभूत बातें इस चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं बन पाईं? ऐसा क्यों है कि सामान्य और सभ्य लोगों के लिए भी हिंदुत्व के ठेकेदारों की गुंडागर्दी बेमानी हो गई? क्यों एक आक्रामक और मर्दवादी कट्टरवाद हमारे समाज के लिए सामान्य सी बात हो गई है? ऐसा क्यों है कि बेहद जरूरी मुद्दे आज गैरजरूरी हो गए हैं? ये सवाल चुनावी समीकरणों और जोड़-तोड़ से कहीं आगे और गहरे हैं। असल में मोदी और भाजपा ने सिर्फ चुनावी नक्शों को ही नहीं बदला है बल्कि सामाजिकं मानदंडों के तोड़-फोड़ की भी शुरूआत कर दी है। यह किताब प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी के पिछले पांच वर्षों की यात्रा को देखते हुए आने वाले पांच वर्षों के लिए एक चेतावनी है।

  • av Subhash Gatade
    198,-

  • av B R_ambedkar
    198,-

    जिन्हें लगता है कि बाबासाहेब आंबेडकर साम्यवाद या मार्क्सवाद के खिलाफ थे वो भयानक पूर्वाग्रह के शिकार हैं। आंबेडकर का मार्क्सवाद के साथ बड़ा ही गूढ़ रिश्ता था। उन्होंने खुद को समाजवादी कहा है लेकिन ये भी सच है कि वो मार्क्सवाद से गहरे प्रभावित थे। हालांकि मार्क्सवादी सिद्धांतों को लेकर उन्हें कई आपत्तियां थीं लेकिन दलितों के निहित स्वार्थों ने आंबेडकर को कम्युनिस्टों के कट्टर दुश्मन के रूप में स्थापित कर दिया और 'वर्ग' के जिस नजरिए से आंबेडकर इस समाज को देख रहे थे, दलितों ने उस नजरिए को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया। प्रतिक्रियास्वरुप कम्युनिस्टों ने भी आंबेडकर और उनके विचारों पर प्रहार करना शुरू कर दिया।1950 के दशक की शुरुआत में आंबेडकर ने एक किताब पर काम करना शुरू किया। जिसका शीर्षक वह भारत और साम्यवाद रखना चाहते थे लेकिन वह पूरी नहीं हो पाई। प्रस्तुत किताब उसी के बचे हुए हिस्सों का संकलन है। उसके अलावा इसमें उनकी एक और अधूरी किताब क्या मैं हिंदू हो सकता हूँ? का एक भाग भी संकलित किया गया है। आनंद तेलतुम्बडे ने इस किताब की एक बेहद प्रभावशाली और तीक्ष्ण प्रस्तावना लिखी है। ये प्रस्तावना साम्यवाद के प्रति आंबेडकर के नजरिए को तो बताती ही है साथ ही साथ आंबेडकर और कम्युनिस्टों के बीच हुए विवादों और उन विवादों के ऐतिहासिक कारणों की पड़ताल भी करती है। तेलतुम्बडे इस प्रस्तावना में बताते हैं कि आंबेडकरवादियों और साम्यवादियों की आपसी एकता ही भारत के गरीबों और पीड़ितों को शोषणकारी शक्तियों के चंगुल से आजाद कर पाएगी। आंबेडकरवादियों और साम्यवादियों दोनों धड़ों के लिए यह एक बेहद जरूरी किताब है। आंखें खोल देने वाली किताब।

  • - Science, Ecology and Agriculture in Cuba
    av Richard Levins
    194,-

  • - A Memoir
    av Teesta Setalvad
    222,-

  • - Selected Essays
    av E.M.S. Namboodiripad
    222,-

  • av Ninian Koshy & Prabir C Purkayastha
    180,-

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