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Bøker utgitt av Leftword Books

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  • av T M Thomas Isaac
    292,-

  • av Vijay Prashad
    211,-

  • av T. M. Isaac Thomas
    184,-

    The principle of fiscal federalism enshrined in India's Constitution is under severe strain today. This book is a key addition to understanding the challenges involved. The authors capture the implications of the abolition of the Planning Commission, the introduction of the controversial Goods and Services Tax regime, and formulation of Terms of Reference of the 15th Finance Commission. These include the increase in vertical fiscal inequity, distortion of fairness in inter-State distribution, and erosion of policy autonomy at the level of the States. Kerala has seen a unique effort to advance the devolution process from the State level to the panchayats and municipalities. Besides taking the path-breaking decision to devolve 40 per cent of State plan funds to local government institutions, the Kerala experiment involved a mass campaign to build capacity of local government. Kerala's Finance Minister Thomas Isaac and his co-authors argue that protecting and enhancing devolution is essential for strengthening popular participation in development decision-making. This book is being published at a time when some of the State finance ministers have been leading a campaign on the need for revisiting certain Terms of Reference of the 15th Finance Commission. This involvement in a movement to reverse the tendency to erode both the fiscal and policy autonomy of the State gives the book an edge and urgency that will place it at the centre of the debate on the attack on Indian federalism.

  • av Nishant Shah
    533,-

    This book locates India's flourishing internet within a complex 24-year history that has seen an unprecedented re-organization of social and political life. Three essays provide independent perspectives on a common area of inquiry, an ra that witnessed a fundamental mutation of the State, its mechanisms of planning and governance, the public domain and the everyday, all mediated by digital technology, all impacting its internet. Bringing the essays together is a common timeline, which begins in the late 1970s, includes such landmarks as the Information Technology Act, the much-discussed Aadhaar biometric identification programme, the chequered career of social media, and the widespread use of internet shutdowns.

  • av Ruth First
    144,-

    Ruth First, born in 1925, held multiple roles during the struggles of her time as a communist militant, journalist, researcher and leading intellectual in South Africa. Until her assassination in 1982, she was a committed anti-apartheid activist and was one of the many defendants of the Treason Trial and imprisoned without charge in solitary confinement for 117 days in 1963. Ruth First on a range of topics including the landmark 1956 Women's March, the workings of the apartheid state, and the history of anti-apartheid armed struggle against this state, introduced by an essay on First's life and legacy, written by Vashna Jagarnath, a labour activist who works in the office of the general secretary of the National Union of Metal workers of South Africa (NUMSA).

  • av Satarupa Chakraborty
    271,-

  • av Vijay Prashad
    244,-

  • av P. M Jitheesh
    171,-

  • av Dipsita Dhar
    224,-

  • av Ashok Dhawale
    194,-

  • av Ahmed Nehal
    180,-

  • av Atul Tiwari
    128,-

    जब कार्ल मार्क्स को मृत्युलोक से धरती पर कुछ पल बिताने का मौका मिलता है, तो वे चुनते हैं हिंदुस्तान की यात्रा करना। यहाँ पहुँचकर वे खोलते हैं अपने जीवन के अध्याय और इसी क्रम में खुलने लगती हैं भारतीय समाज की न जाने कितनी परतें . . . "पता नहीं आपको कैसा लग रहा होगा मुझे यहाँ मौजूद देख कर? आप सोच रहे होंगे, 'मार्क्स अभी तक ज़िंदा है? हमने तो सुना था और सोचा था कि . . . वो तो मर गया। उन्नीसवीं सदी में ना सही - तो 1989 में तो definitely मर गया था मार्क्स।' आपने ठीक सोचा था। मैं 1883 में ही मर गया। पर अब तक ज़िंदा भी हूँ। जी हाँ, 'मर गया हूँ - पर ज़िंदा हूँ'। हःहःहः! इसी को तो कहते हैं dialectics या द्वंद्ववाद - द्वंद्वात्मकता।"

  • av Fidel Castro Ruz
    180,-

  •  
    156,-

    'ये कविताएँ सामाजिक रूप से सजग हैं। विडंबनाओं, विषमताओं की सही पहचान करती हैं। उनकी लौकिकता दृष्]टव्]य है। वे अपना समय दर्ज करती हैं। सवाल करती हैं। कविता जिन सरोकारों से सामाजिक, नागरिक और अंतर्जगत का व्]यक्तित्]व बनती है, प्राय वे इन कविताओं में जगह-जगह अभिव्]यक्]त हैं। ये किसान जीवन से लेकर नागर सभ्]यता के नवीनतम संकटों को देखती हैं। लोकतांत्रिक, संवैधानिक अधिकारों, स्]त्री अस्मिता के प्रश्]न, समानता, प्रेम, स्]वतंत्रता, सत्]ता संरचनाओं की आलोचना के कार्यभार सहित सांप्रदायिकता एवं कविता की भूमिका की चिंताएँ इनमें व्]याप्]त हैं। अभिधा प्रधान है लेकिन कविताओं में वह ज़रूरी संदेह और आशा भी समाहित है जो कवियों की आगामी काव्]ययात्रा के प्रति उत्]सुक बना सकती है। निकट भविष्]य में ये कवि अधिक परिपक्]वता और अधिक संयत कहन, दृष्टिसंपन्]न प्रतिबद्धता के साथ विकसित होंगे, इस आश्]वस्ति के बीज भी यहीं बिखरे हुए हैं।' - कुमार अम्बुज

  • av Vijay Prashad
    170,-

    'अपने हीरो एदुआर्दो गालेआनो की तरह विजय प्रशाद ने सच के बयान को भी मनभावन बना दिया है। यह काम आसान नहीं है पर वे उसे सहजता से कर ले जाते हैं।' - रोजर वॉटर्स, पिंक फ्लॉयड/'इस किताब को पढ़ते हुए अमेरिकी दादागिरी द्वारा उम्मीदों पर कुठाराघात की अनगिनत घटनाएं दिमाग में कौंध जाती हैं।' - इवो मोरालेस आइमा, बोलीविया के पूर्व राष्ट्रपति/तख़्तापलट मार्क्सवादी पत्रकारिता और इतिहास लेखन की शानदार परंपरा में लिखी गई है। इसमें बेहद पठनीय और सहज कहानियां हैं, जो अमेरिकी साम्राज्यवाद के बारे में खुलकर बताती हैं लेकिन व्यापक राजनीतिक मुद्दों के बारीक पहलुओं को भी छोड़ती नहीं। वैसे एक तरह से यह किताब निराशा से भरी है और महान लक्ष्यों की पराजय का शोकगीत प्रस्तुत करती है। इसमें आपको कसाई मिलेंगे और भाड़े के हत्यारे भी। इसमें जनांदोलनों और लोकप्रिय सरकारों के ख़िलाफ़ साज़िश रचे जाने तथा तीसरी दुनिया के समाजवादियों, मार्क्सवादियों और कम्युनिस्टों की उस देश द्वारा हत्या करवाए जाने के वृत्तांत हैं, जहां स्वतंत्रता महज एक मूर्ति है। लेकिन इन सबके बावजूद तख़्तापलट संभावनाओं, उम्मीदों और सच्चे नायकों की किताब है। इनमें से एक हैं बुरकीना फासो के थॉमस संकारा, जिनकी हत्या कर दी गई थी। उन्होंने कहा था, 'अगर आप बुनियादी बदलाव लाना चाहते हैं तो उसके लिए एक हद तक पागलपन की ज़रूरत है। इस मामले में यह नाफ़रमानी से आता है, पुराने सूत्रों को धता बताने और नए भविष्य के निर्माण के साहस से आता है। ऐसे ही पागल लोगों ने हमें वह नज़रिया दिया है, जिससे हम आज पूरे सूझबूझ के साथ काम कर रहे हैं। आज हमें वैसे ही दीवानों की ज़रूरत है। हमें भविष्य के निर्माण का साहस दिखाना होगा।' तख़्तापलट कुछ ऐसे ही पागलपन और भविष्य रचने के साहस से भरी एक किताब है।

  • av Manik Bandyopadhyay
    180,-

  • av Peter Mertens
    180,-

  • av E M S Namboodiripad
    166,-

  • av Vijay Prashad Aijaz Ahmad
    208,-

  • av Mark Twain
    166,-

    Dear, dear, when the soft-hearts get hold of thing like that missionary''s contribution they completely lose their tranquility they speak profanely and reproach Heaven for allowing such a find to live. Meaning me . They think it irregular. They go shuddering around, brooding over the reduction of that Congo population from 25,000,000 to 15,000,000 in the twenty years of my administration ; then they burst out and call me the King with Ten Million Murders on his Soul. They call me a ''record''. - From King Leopold''s Soliloquy

  • av Hugo Chavez
    124,-

  • - Hindutva and Sharonism Under Us Hegemony: Signpost 7
    av Vijay Prashad
    166,-

  • - An Introductory Reader
    av Prabhat Patnaik
    166,-

  • av Pinarayi Vijayan
    170,-

  • av Vijay Prashad
    180,-

  • av Michael Denning
    348,-

  • av Mythily Shivaraman
    306,-

  • av Max Blumenthal
    320,-

  • av Vijay Prashad
    236,-

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