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Bøker av Mridula Sinha

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  • av Mridula Sinha
    425,-

    संक्रमण समाज को त्रस्त और भ्रमित कर रहा था। पूरा विश्व अपनी तरह से जूझ रहा था। भारत भी, भारतवासी भी। सबसे कठिन परीक्षा की घड़ी समाज-सेवी, राजनीतिक एवं गैर-राजनीतिक संगठनों की थी और हर व्यक्ति कोरोना से अपनी ताकत से जूझ रहा था। मृदुलाजी ने कलम उठाई और कलम को हथियार बना लिया, अपने ढंग से कोरोना से लड़ने के लिए; उसी का प्रतिफल है यह उपन्यास। ग्रामीण अंचल में मुखिया की बूढ़ी माँ ने अपने बेटे को आयुर्वेद से ठीक किया तो शहर में नव-नियुक्त डॉ. मयंक और डॉ. माला की शिक्षा से ज्यादा उनका संस्कार कोरोना से लड़ने में काम आने लगा। अस्पताल के अंदर-बाहर की घटनाओं का विस्तृत वर्णन और पैदल घर लौटते मजदूरों की यात्रा-गाथा है। एक धागा कोरोना का पिरो गया 138 करोड़ को। अनंत अनुभव सबके साझे से। भारत ने इससे पहले शायद ही कभी देखा हो, कोई भी ऐसा अनुष्ठान, जिसमें सब शामिल हो, जो सबको छूता हो, 'न भूतो, न भविष्यति'।

  • av Mridula Sinha
    425,-

    जीवन-पथ पर चलते हुए कितने लोग, कितनी स्थितियाँ, विविध प्रसंग, विविध रसों का रसास्वादन, भिन्न-भिन्न शहरों और निर्जन स्थलों पर अनेकानेक भावों के संवाद और स्वरों के गान सुनने को मिलते हैं। वहीं विरोधाभाषी स्पर्शों की अनुभूति भी होती है। कुछ स्पर्श ऐसे, जो कोमल और कठोर, कुछ भी हों, भुलाए नहीं भूलते। कुछ प्रसंगों को हम दूसरों को बार-बार सुनाते हैं। उसमें हर बार कुछ-न-कुछ नवीनता जुड़ती जाती है। पर मूल प्रसंग तो वही रहता है। प्रसिद्ध साहित्यकार स्व. मृदुला सिन्हाजी के दायित्व का तकाजा घुमक्कड़ी था; वे पिछले चालीस वर्षों में देश-विदेश घूमती ही रहीं। अतीव संवेदनशील होने के कारण अपनी अनुभूतियों को सँजो लेती थीं। उनकी लेखनी और कोरे कागज उनके जीवन-संगी थे ही। ट्रेन में हों या प्लेन में, प्रसंग उनके मानस से उतरकर कोरे कागज को भरते रहे। इन लेखों में व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, प्रादेशिक और समाज में स्थित राष्ट्रीय एकता की पहचान संबंधित आलेख भी आ गए। सुदूर अंडमान निकोबार में कोई घटना घटी, उसकी रिपोर्ट 'दुनिया मेरे आगे' में छपने के बाद कश्मीर के लोगों को भी अपने आसपास की घटना लगी। तभी तो सब ओर के पाठक उल्लसित होते रहे और इन लेखों की लोकप्रियता लेखिका के लिए समाज के गुण-दोषों, रिश्ते-नातों के विभिन्न तासीर के आकलन का एक माध्यम बन गई। इन लेखों में मनुष्य जीवन ही नहीं, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी की कहानियाँ हैं। अपने आकार-प्रकार में भले ही ये आलेख बहुत बड़े नहीं हैं, फिर भी इनकी गहराई और गंभीरता से इनकार नहीं किया जा सकता। हास्य-व्यंग्य है तो सोचने के लिए विवश करनेवाले प्रसंग भी। विश्वास है कि अब एक सूत्र में गूँथकर हर मौसम में खिलनेवाले विभिन्न सुगंधों और रंगों के फूलों से बना अनुभूतियों का गुच्छा पाठकों को अवश्य आनंद देगा।

  • - Letters from a mother in India to her daughter living abroad
    av Mridula Sinha
    143,-

  • av Mridula Sinha
    194,-

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