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Untouchability among the Hindus ¿ Problem of Habitat ¿ Old theories of the Origin of Untouchability New Theories of the Origin of Untouchability ¿ The New Theories and some Hard Questions ¿ Untouchability and the Date of its Birth.
The classic analysis of the caste system with an extensive introduction by Arundhati Roy."e;What the Communist Manifesto is to the capitalist world, Annihilation of Caste is to India."e; -Anand Teltumbde, author of The Persistence of Caste. B.R. Ambedkar's Annihilation of Caste is one of the most important, yet neglected, works of political writing from India. Written in 1936, it is an audacious denunciation of Hinduism and its caste system. Ambedkar - a figure like W.E.B. Du Bois - offers a scholarly critique of Hindu scriptures, scriptures that sanction a rigidly hierarchical and iniquitous social system. The world's best-known Hindu, Mahatma Gandhi, responded publicly to the provocation. The hatchet was never buried. Arundhati Roy introduces this extensively annotated edition of Annihilation of Caste in "e;The Doctor and the Saint,"e; examining the persistence of caste in modern India, and how the conflict between Ambedkar and Gandhi continues to resonate. Roy takes us to the beginning of Gandhi's political career in South Africa, where his views on race, caste and imperialism were shaped. She tracks Ambedkar's emergence as a major political figure in the national movement, and shows how his scholarship and intelligence illuminated a political struggle beset by sectarianism and obscurantism. Roy breathes new life into Ambedkar's anti-caste utopia, and says that without a Dalit revolution, India will continue to be hobbled by systemic inequality.
जिन्हें लगता है कि बाबासाहेब आंबेडकर साम्यवाद या मार्क्सवाद के खिलाफ थे वो भयानक पूर्वाग्रह के शिकार हैं। आंबेडकर का मार्क्सवाद के साथ बड़ा ही गूढ़ रिश्ता था। उन्होंने खुद को समाजवादी कहा है लेकिन ये भी सच है कि वो मार्क्सवाद से गहरे प्रभावित थे। हालांकि मार्क्सवादी सिद्धांतों को लेकर उन्हें कई आपत्तियां थीं लेकिन दलितों के निहित स्वार्थों ने आंबेडकर को कम्युनिस्टों के कट्टर दुश्मन के रूप में स्थापित कर दिया और 'वर्ग' के जिस नजरिए से आंबेडकर इस समाज को देख रहे थे, दलितों ने उस नजरिए को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया। प्रतिक्रियास्वरुप कम्युनिस्टों ने भी आंबेडकर और उनके विचारों पर प्रहार करना शुरू कर दिया।1950 के दशक की शुरुआत में आंबेडकर ने एक किताब पर काम करना शुरू किया। जिसका शीर्षक वह भारत और साम्यवाद रखना चाहते थे लेकिन वह पूरी नहीं हो पाई। प्रस्तुत किताब उसी के बचे हुए हिस्सों का संकलन है। उसके अलावा इसमें उनकी एक और अधूरी किताब क्या मैं हिंदू हो सकता हूँ? का एक भाग भी संकलित किया गया है। आनंद तेलतुम्बडे ने इस किताब की एक बेहद प्रभावशाली और तीक्ष्ण प्रस्तावना लिखी है। ये प्रस्तावना साम्यवाद के प्रति आंबेडकर के नजरिए को तो बताती ही है साथ ही साथ आंबेडकर और कम्युनिस्टों के बीच हुए विवादों और उन विवादों के ऐतिहासिक कारणों की पड़ताल भी करती है। तेलतुम्बडे इस प्रस्तावना में बताते हैं कि आंबेडकरवादियों और साम्यवादियों की आपसी एकता ही भारत के गरीबों और पीड़ितों को शोषणकारी शक्तियों के चंगुल से आजाद कर पाएगी। आंबेडकरवादियों और साम्यवादियों दोनों धड़ों के लिए यह एक बेहद जरूरी किताब है। आंखें खोल देने वाली किताब।
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