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ज़िंदगी को पढ़ने के लिए नज़र नहीं, नज़रिया चाहिए !अनु भाटिया जो गत 15 वर्षों से अध्यापन क्षेत्र से जुड़ी हैं, व्यावसायिक रूप से एक अध्यापिका होने के साथ- साथ एक कर्तव्यनिष्ठ पारिवारिक महिला भी हैं। लेखन कला में अभिरुचि रखने वाली इस लेखिका ने विविध विषयों पर आधारित लेख, भाषण, कहानियाँ, गीत और विशेषकर कविताएँ आदि लिखकर विद्यालयी स्तर पर तो योगदान दिया ही है तथा इनकी कई रचनाएँ प्रकाशित भी की गई हैं। पाठ्यपुस्तकों की लेखिका और संपादिका के रूप में सहभागी बनकर कई प्रकाशन संस्थाओं ( ऑक्सफ़ोर्ड, इंडिएनिका, रचना सागर आदि ) के साथ भी संलग्न हैं । 19 वर्ष की अल्प आयु में विवाह के उपरांत स्नातक(बी ए ) और स्नातकोत्तर ( एम ए ), बी एड कर तथा तीन बच्चों के मातृत्व भार का वहन करते हुए ये साधारण गृहिणी कार्यक्षेत्र के मैदान में उतरीं जिसका श्रेय ये अपने पति को देती हैं जिन्होंने सदा इन्हें आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित किया। आज इनके दवारा लिखित प्रस्तुत उपन्यास भी उन्हीं की प्रेरणा का परिणाम है । ज़िंदगी के बहुत कम समय के सफर ने इन्हें बहुत कुछ सिखा और दिखा दिया है और आज इन्होंने उसी सफ़रनामे को उपन्यास का हिस्सा बना दिया है । शब्दों के चमत्कार से बुनी गई नहीं है ये कहानी. इसमें हैं सच्चाई भावों की, मर्म है और है ज़िंदादिल ज़िंदगानी, मन के हारे हार है, मन के जीते जीत इस यथार्थ की है इसमें रवानी, स्वाभिमान और आत्मबल की सुलगती चिंगारी है और बदलते रिश्तों का बहता पानी, अपनों के लिए जीने की तड़प है और बेगानों से निस्वार्थ,गहरे रिश्ते जुड़ने पर होती हैरानी, इसमें है परिस्थितियों के घातक वारों से टकराकर, हमें कैसे हिम्मत और ज़िद्द की शमशीर है चलानी, ये कहानी है ऐसे एक शख़्स की जिसने मौत से पहले,मौत को नहीं करने दी मनमानी !!!
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